स्वस्थ भारत का बीजारोपण

स्वस्थ भारत का बीजारोपण

नारायण कृष्‍णमूर्ति

इस सरकार के पिछले बजट में जिस राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण योजना यानी आयुष्मान भारत या मेडिकेयर की घोषणा की गई है, उसके लाभार्थियों की संख्या करीब दस करोड़ परिवार हैं। यह लगभग 25 फीसदी आबादी के बराबर है, जो सबसे बड़ी सार्वजनिक स्वास्थ्य योजना से लाभान्वित होगी। जैसा कि स्वास्थ्य मंत्री जे पी नड्डा ने एक बयान में कहा, इस पहल को मजबूती देते हुए आयुष्मान भारत के क्रियान्वयन के प्रारंभ में 10,000 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है। यह योजना भविष्य में एक स्वस्थ भारत का बीजारोपण करेगी।

अब जरा स्वास्थ्य सेवा से संबंधित उपलब्ध कुछ आंकड़ों पर नजर डालते हैं, जो इस योजना की परिवर्तनकारी शक्ति को समझने में मददगार होंगे। इस समय लगभग हर घंटे पांच वर्ष से कम उम्र के करीब 130 बच्चे मर जाते हैं या करीब तीन लाख बच्चे हर साल निमोनिया या डायरिया से मर जाते हैं। ऐसे भयावह आंकड़ों का प्रमुख कारण गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा की कमी है, भले ही इस समय इलाज के खर्च में कमी की गई हो।

देश के 130 करोड़ नागरिकों के इलाज के लिए मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के तहत पंजीकृत एलोपैथिक डॉक्टरों की संख्या बहुत कम यानी 10.5 लाख से भी कम है। इसका मतलब है कि प्रति 1,600 लोगों पर मात्र एक डॉक्टर है। हैरानी की बात नहीं कि जो लोग महंगे इलाज का खर्च उठा सकते हैं, वे तुरंत विदेश चले जाते हैं। उदाहरण के तौर पर गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर या दागी हीरा व्यापारी मेहुल चोकसी के मामले को ले सकते हैं, जो खराब स्वास्थ्य के कारण अमेरिका में है। लेकिन यह योजना उन लोगों के लिए है, जो इलाज का खर्च नहीं उठा सकते। हमारे पास लगभग 14,400 सरकारी अस्पताल हैं, जिनमें 6.3 लाख बिस्तर हैं, उनमें से 11,054 अस्पताल और 2.09 लाख बिस्तर ग्रामीण इलाकों में हैं।

सीधे शब्दों में कहें, तो इस स्वास्थ्य सेवा योजना के लिए हमारे पास जरूरी जनशक्ति या संसाधन नहीं हैं, भले दस करोड़ परिवारों को इस बीमा योजना के जरिये पैसा मुहैया कराया जाए। 25,650 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) और 5,624  सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचएस) भले ही सुनने में बहुत ज्यादा लगे, लेकिन अगर कोई पीएचसी में डॉक्टरों के मंजूर पद और रिक्तियों की पड़ताल करे, तो उसे यह जानकर हैरानी होगी कि डॉक्टरों के मंजूर 33,968 पदों में से 25 फीसदी पद खाली हैं। इसी तरह सीएचएस के लिए 11,910 पद मंजूर हैं, जिनमें से मात्र चार हजार पदों पर लोग काम कर रहे हैं। इनमें तकनीशियन, नर्सिंग एवं सहायक स्टाफ शामिल नहीं हैं, जिनकी जरूरत मौजूदा उपलब्ध बुनियादी ढांचे को पूरा करने के लिए है और जिन्हें भरने की जरूरत है।

इसके साथ जरूरतमंदों को स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने के लिए कई राज्यों की अपनी स्वास्थ्य सेवा योजनाएं हैं। जैसे, तमिलनाडु में मुख्यमंत्री व्यापक स्वास्थ्य बीमा योजना है, जो एक हजार से अधिक तरह की चिकित्सा प्रक्रिया के लिए प्रति परिवार एक लाख रुपये का कवरेज प्रदान करती है, इसमें कुछ ओपीडी जैसी चिकित्सा प्रक्रिया भी शामिल है। आंध्र प्रदेश में एनटीआर वैद्य सेवा और आरोग्य रक्षा है, तो महाराष्ट्र में महात्मा ज्योतिबा फूले जीवनदायी आरोग्य योजना है, जो एक हजार प्रकार की सर्जरी के लिए 1.5 लाख रुपये का कवरेज देती है।

इन राज्य स्तरीय योजनाओं में से कुछ सफल हैं, तो कुछ इस दिशा में कार्यशील हैं, ऐसे में आयुष्मान भारत योजना को सफल बनाना मुश्किल है। केरल और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य पहले ही इस योजना या इसकी संरचना में शामिल होने के प्रति अपना विरोध दर्ज करा चुके हैं, क्योंकि राज्यों से इस योजना के लिए भुगतान की अपेक्षा की गई थी। कुछ राज्य इसके वितरण की लागत पर भी सवाल उठा सकते हैं, जो अभी उभरने वाला है। लागत को लेकर उनकी आपत्ति का कारण यह है कि उन्होंने वर्षों तक कम लागत में गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा जारी रखी है। इसका मतलब है कि आयुष्मान भारत के लिए स्वास्थ्य बीमा योजना के वितरण की राष्ट्रीय औसत लागत उनके लिए महंगी हो सकती है।

अगर हम व्यापक पैमाने पर वैश्विक अनुभव को देखें, तो ब्रिटेन का एनएचएस (नेशनल हेल्थ सर्विस) शीर्ष पर है। ब्रिटेन में यह स्वास्थ्य योजना कई वर्षों तक सफल रही है, हालांकि अब यह योजना संकटग्रस्त है। भारत की तुलना में सिंगापुर और इंडोनेशिया जैसे अपेक्षाकृत छोटे देशों का परिणाम मिला-जुला है। हमारे यहां कई राज्यों में राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना चल रही है। हालांकि कुछ राज्यों ने इसे लागू करने से इन्कार कर दिया, तो कुछ ने अपने हाथ खींच लिए, जिसकी वजह लागत और बाद के वर्षों में बजट में कटौती थी।

स्वास्थ्य बीमा के निजीकरण के शुरुआती वर्षों में वास्तव में स्वास्थ्य सेवा की औसत लागत में वृद्धि हुई है। एक ऐसी स्थिति भी आई, जब स्वास्थ्य बीमा के दावों का निपटारा करने की तुलना में उन्हें खारिज अधिक किया गया। थर्ड पार्टी एडमिनिस्ट्रेशन की शुरुआत के बाद स्वास्थ्य बीमा के काम करने का ढंग बदल गया, क्लेम करने की पूरी जिम्मेदारी अब इसी के पास है। कुछ अध्ययनों से संकेत मिले हैं कि अस्पताल-टीपीए-बीमाकर्ता की मिलीभगत से स्वास्थ्य सेवा का खर्च बढ़ गया। हमने यह भी देखा है कि बीमा वाले मरीजों की तुलना में बिना बीमा वाले मरीजों को कम भुगतान करना पड़ता है।

आयुष्मान भारत की परिकल्पना एक बढ़िया विचार है। लेकिन इसे लागू करने की लागत और क्षमता फिलहाल नहीं है। क्षमता निर्माण के लिए सरकार को तीन से पांच वर्षों का एजेंडा बनाना चाहिए, जिसमें राज्य सरकारें भी भूमिका निभा सकती हैं। जहां जरूरत हो, वहां बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए सांसद निधि का उपयोग किया जाना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सांसद और विधायक भारतीय अस्पतालों पर भरोसा करें और विदेशों में इलाज कराने के बजाय इन्हीं सरकारी अस्पतालों में इलाज कराएं।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं और उनका ये आलेख अमर उजाला से साभार लिया गया है।)

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